ऊ दिन
अब लौट के
ना आई
जब
अच्छनवमी के
चांदनी रात में
आँवला के
गाछ के नीचे
खाना बनी
सभे साथे खाई
हंसी बोली बतियाई
ना कवनो डर
अन्हार से
ना आदमी से
ना बाजार से
ना राजनीतिक
तकरार से
ना ऊ सियार से
जे आज
रंग बदल के
आदमी के जिनगी
में घुसल बा
अब लौट के
ना आई
जब
अच्छनवमी के
चांदनी रात में
आँवला के
गाछ के नीचे
खाना बनी
सभे साथे खाई
हंसी बोली बतियाई
ना कवनो डर
अन्हार से
ना आदमी से
ना बाजार से
ना राजनीतिक
तकरार से
ना ऊ सियार से
जे आज
रंग बदल के
आदमी के जिनगी
में घुसल बा
अइसन बदलाव
कब आई जब
खुला आसमान के नीचे
खुला मन से सभे
एक बेर फेरू
बैठी, हंसी
बतियाई, खाई
अपना माटी
के पकवान
आ उगी
अपना माटी में
गहरा जड़ से
उखाड़ी न कवनो
ताकत ओकरा के
सूख के ओकर
पतई उधिआई ना
आ गिरी दूर
आपना माटी से
बेनामी
दिशाहीन
जड़हीन
कब आई जब
खुला आसमान के नीचे
खुला मन से सभे
एक बेर फेरू
बैठी, हंसी
बतियाई, खाई
अपना माटी
के पकवान
आ उगी
अपना माटी में
गहरा जड़ से
उखाड़ी न कवनो
ताकत ओकरा के
सूख के ओकर
पतई उधिआई ना
आ गिरी दूर
आपना माटी से
बेनामी
दिशाहीन
जड़हीन
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