शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

जेकर रोटी से बन-बन फिरे फकिरवा टोक-टोक खाय





(1)
ऊ देखते रह गइले
ऊ बइठ्ले रह गइले
ऊ बोलते रह गइले
ऊ कुर्सी छोडले ना
ऊ खुसुर–पुसुर करते रह गईले
ऊ लोग फोटो खीचते रह गइल
खाकी देखते रह गइल आ
ऊ खाक में मिल गइले !

(2)
(कहाँ से ई आदमी आके )
पेड़ से लटक गइल
(सब मुद्दा के )
अपना मौत के साथ गटक गइल
दोसर मुद्दा शुरू हो गइल
अरे केतना फूंका फार के,
दहाड़ मार के रोवतार भाई
आ जेकर बाप मर गइल
ओकरा त छुटते नईखे रोआई
अगर रोवले से दुःख बुझाइत  
त ई दुनिया रोवते-रोवते
धरती में ना समा जाइत?

(3)
भीड़ जूटल रहे
भीड़ जुटावल रहे
नौटंकी  होत रहे
पात्र पेड़ पर चढत रहे
सूत्रधार परदा के पीछे खड़ा रहे
लोग आपन चरित्तर देखावत रहे
(खेती-किसानी पर )
ऊपरवाला के किरिपा बनल रहो
नेता पर जनता के किरिपा बनल रहो
(जिनगी एगो नाटक ह आ हमनी के खिलाडी )
जनता के मनोरंजन होत रहो
कोमेडी सर्कस के मेलोड्रामा चलत रहो !

(4)
नेता के कुछ मुद्दा मिलत रहो
(बेवजह बरसात में )
झींगुर झंझनात रहो आ बेंग बोली बोलत रहो
(पैनल डिस्कशन के नाम पर )
लोग आपस में तूतू-मैंमैं करत रहो
(जहर के असर कहाँ बा पता नइखे, लेकिन )
जंतर-मंतर पर झाड-फूंक चलत रहो
परेता लोग के भी जिनगी
खात-पीयत चलत रहो
(जिनगी में का धइल बा ? )
खेल-तमाशा चलत रहो
आ हमनी के खेल बनल रहो !

(5)
ऊ मर गइल
ऊ दुनिया छोड़
के चल गइल
ऊ के रहल ह?
ऊ का करत रहल ह?
ऊ का चाहत रहल ह?
ओकरा साथै-साथे ई
रहस्य भी चल गइल !

(6)
साठ साल से ऊपर भइल
भारत एगो कृषि-प्रधान देश ह
पढ़त-सुनत कान पाक गइल
प्रजातंत्र के पह्र्रुआ नइखन
ठनकत, अहंकार के अन्हार में
सुतल बाड़े सपना देखतारे
सपना देखावतारे
जमीन  से ना जुडला से
हँसुआ, खुरपी कुदारी
में मुरचा लाग गइल
किसान के मुद्दा, जमीन के मुद्दा,  
हरही गाय,
अभी ले ना सजाइल,
बकेन त ना हो सकल
बिसुखी  जरूर हो गइल l



मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

नित्य से अनित्य

जिनगी भी होटल 
के एक कमरा ह 
आ ओहिमे आदमी 
के सीमित बा संसार 
विचार के विस्तार 
ही ए जिनगी के 
नित्य से अनित्य 
के ओर ले जाता का ?

आत्मा के कियारी

मन में धीरे -धीरे 
विचार के धारा 
बह रहल बा 
बहत चल जाता 
आ हम नदी 
के किनार पर 
खड़ा बानी भींगत
सोचत सींचत बानी 
आत्मा के कियारी 
के कुछ पौधा 
जे मुरझा रहल बाड़े
नमी के बिना !

अंजोर

आँख खुल गईल
चारो ओर खाली 
सन्नाटा के आवाज 
सुनाई देता 
चारो ओर
घना अँधेरा बा 
अब कही दूर से 
पत्थर पर पत्थर 
रगड़े के आवाज 
सुनाई देता 
चिंगारी उड़ता 
अब घीरे-धीरे 
अंजोर होखे लागल !

सवाल

मछरी पानी में -
चिल्होर असमान में -
झपट्टा मार के 
चोंच में दबा के 
उड़त पहाड़ी पर बईठल 
चुपचाप स्वाद लेत 
प्रकृति के चक्र 
चल रहल बा, एहिमे 
नैतिकता के सवाल 
से उपर भी कुछ बा का ?

शिक्षा आ शहर

विश्व गौरैया दिवस 
काल्ह बीत गईल 
कविता लेख तस्वीर 
लगा के ज़िम्मेदारी से 
हाथ धो लिहल सभे ! 
शिक्षा आ शहर हमनी के अन्दर 
केतना घुस के बईठल बा 
दम्मी सधले !

विष

तू ठीक
कहतार भाई
जिनगी जिए
खातिर तs
विष पियेके पड़ी
लेकिन ई
कूड़ा के पानी
जे आज
चारू ओर
बह रहल बा
उ का गला के
नीचे उतारल
आसान बा ?
दूनू के  लक्षणा
में भी
आसमान जमीन
के अन्तर बा !
एगो अउरी बात
एक जमाना में
विष
दुर्लभ चीज रहे
आज के जईसन
चारू तरफ
कूड़ा के पानी
अईसन  
छितराईल
ना रहे l 

बोझा

जिनगी कभी-
कभी एक बोझा
हो जाला
जब साथ रहत
आदमी के
मन के कूड़ा
ढोवत-ढोवत
अपना सर पर
चुवे लागेला
ओकरा के पोंछ
त सकेनी
फेंक भी सकेनी
लेकिन ओकरा दुर्गन्ध
से पीछा
छुडावल बड़ा
मुश्किल बा !
कभी सोच के
देंखी
आदमी अपना
जिनगी भर में
केतना कूड़ा
पैदा करता !

चिरई

बरखा-बुनी 
आन्ही-पानी 
धुल-धक्कड़ 
घुमक्कड़ 
बवरेंडा-बावरा
हवा-बयार 
खर-पतवार
घर-घोंसला 
दाना-पानी 
जान-जहान
उड़ान-असमान
चिरई
चीरs
हवा 
के

कोईल का कह्तीया

दूर से आवाज
सुनाई देता
स्काईप  पर  
कोईल बोलतीया
महानगर में !
महानगर के साथे लागल
कभी गाँव, कभी कस्बा
जईसन लागत शहर में !



कोईल का कह्तीया ?
कि मोजर लागल बा
टिकोरा लउकता
हवा में महकतारे
मदन, मोहतारे प्रान


कोईल का कह्तीया ?
हमार धर उजड़ता,
तहार घर बसsता
हम कहाँ जाईं
काहे खातिर
एतना दूर से
उडी-उडी के
तहरा देस में
उजड़े खातिर आईं!



कोईल का कह्तीया ?
जब पंचकठवा लिखाईल
बाबा आम के बगईचा
लगावे के
कहते-कहते
एह दुनिया से
विदा ले लेहनी,
खाली पडल बा,
भांग जामल बा,
कोईलिया के डर बा
लौट के जाई
त बर्फ में मर जाई
कुछ वईसही डर
हमरो बा !



लेकिन गाँव
हमरा मन
में बसल बा
उ उजडल धर भी
जे अब बस ना पाई !
लेकिन हमरा
मन में
बहुत दूर-दूर ले
शहर भी सहरा अईसन
फईलल बा,
जेतने आगे बढ़त
जातानी
मृग नईखे मिळत,
मृगतृष्णा बा
पीयास लागल बा
कंठ सूखता
हडबडा के उठतानी
सपना टूटता


बुझात नईखे  
कोईल का कह्तीया ?
रोवतीया,
गावतीया,
की हमनी पर
हंसतीया...